इन्सान अपने सभ्यता के शुरुआती दिनों में, जानवर के सदृश ही था। उसके ज्ञान का क्षेत्र सीमित था और मस्तिष्क का भी अधिक विकास नहीं हुआ था। तब वह प्रकृति के कई रहस्यों को नहीं जानता था। तब उसे नहीं पता था कि पौधा कैसे उगता है, बिजली कैसे चमकती है, आग क्या होता है, स्त्री-पुरुष के सहवास से बच्चा कैसे पेट में चला आता है?
इन्सान को कई प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता था। जैसे बाढ़, भूकंप, महामारी, अकाल आदि। तब
उसे नहीं पता था कि यह सब घटनायें कैसे घटती हैं। वह परेशान था। इन परेशानियों के
कारण और प्राकृतिक शक्ति खुद से बड़ा समझने के कारण उसने उसे चेतन समझा, वैसे ही जैसे
इन्सान है। उसने उस शक्ति और रहस्य को खुश करने की सोची। उसे अपना सबसे प्रिय
वस्तु देना शुरू किया और उसकी पूजा अर्चना और ईबादत शुरू की।
तस्वीर प्रतीकात्मक है। स्रोत: Paradisedulink |
हालाँकि तब के तरीके अब के तरीकों से काफी अलग थे। अपने डर, दुःख और अज्ञानता से मुक्ति पाने के लिए इन्सान ने भगवान को बनाया। बाद में उसने
उसे अधिक व्यवस्थित करने के लिए धर्म बनाये, मजहब बनाये, तरह-तरह की उपासना पद्धति बनाई।
जो व्यक्ति समुदाय में सर्वाधिक होशियार था, उसे पुरोहित बनाया।
भगवान की प्रशंसा में, दुनिया के पुरोहितों ने हजारों किताबों का सृजन किया। उन किताबों के हर
पन्ने पर उन्होंने भगवान की इबादत लिखी। समुदाय में जो सबसे होशियार होता था और
प्रकृति की शक्तियों को थोडा बहुत समझता था, उसने अपने ज्ञान और अनुभव को भी उस काल्पनिक
भगवान की देन बताया। उस देन को पूरी समुदाय के सामने रखा। देर-सबेर लोग उसको मानने
लगे।
चूँकि ज्ञान का हर समुदाय में अलग-अलग तरीके और परिस्थिति में विकास हुआ। हालाँकि वे आपसी संपर्क से एक-दुसरे से प्रभावित होते रहे और
प्रभावित भी करते रहे। इन्हीं कारणों से, कई प्रकार की उपासना पद्धति और भगवान की संकल्पना बनी। सभी
समुदाय अपने धार्मिक और ईश्वरीय ज्ञान को श्रेष्ठ समझते रहे।
नए-नए महापुरुष,
तथाकथित पैगम्बर,
उद्धारक और दूत की तरह आये। उन्होंने पुराने ज्ञान में इजाफा किया। समय के साथ
उसमें बदलाव भी लाये। इन संकल्पनाओं उपासना पद्धति और ज्ञान के मिश्रण से कई
प्रकार की परम्परायें भी विकसित हुई। इन्सान अपने ज्ञान, अनुभव तथा
प्रकृति पर विजय पाने की क्षमता के कारण खुद को सबसे श्रेष्ठ प्राणी समझने लगा।
चूँकि इन्सान प्रकृति की शक्ति से डरता था और अपने से उसे श्रेष्ठ समझता था। उसने सोचा कि इसके पीछे की शक्ति जरुर इंसानी शक्ति से भी बडी शक्ति होगी। इन्सान ने अपनी श्रेष्ठ समझ से ईश्वर को परिभाषित करना शुरू किया। उसे भी चेतनशील, जीवित और इंसानी रूपों में समझा।
अपनी कल्पना से इंसानी रूप में ही मूर्ति बनाकर मानना शुरू कर दिया। अब हर
समस्या,
भय,
जरुरत आदि के समय इन्सान ने उसे याद करना और उसकी उपासना करना शुरू कर दिया। उसने
फिर भगवान को कल्पना में ही सही खुद से भी श्रेष्ठ समझने के कारण उसकी प्राप्ति को
चरम उद्देश्य कहना शुरू किया।
चूँकि वह किसी को मिलता नहीं था, इसलिए उसकी प्राप्ति को और भी महान उद्देश्य
समझा जाने लगा। बहुसंख्य लोग धर्म और मजहब के काल्पनिक अफसानों को सत्य मानने लगे।
उसे पाने के लिए प्रत्येक समाज ने अपनी समझ और सुविधा से उस काल के सापेक्ष
परम्परायें, और
रश्मों-रिवाज बनाये गए। उसकी खोज जारी रही। फिर भी वो मिला नहीं।
दूसरी तरफ,
साथ ही साथ उसने पत्थरों के औजार बनाये। फिर धातुओं के हथियार बनाये। उन हथियारों
से रक्तपात किया। नरसंहार किये। साम्राज्य बनाये। सम्राट बने और बहुसंख्य लोगों को गुलाम भी बनाया।
कई बार धर्म के नाम पर भी। लेकिन फिर भी किसी को भगवान से मुलाकात नहीं हुई।
लोगों को उसे पाने की इतनी लालसा बढ़ी कि किसी पुरोहित अथवा धूर्त इन्सान
द्वारा किसी को भ्रमित करना आसान हो गया। किसी ने हिमालय में उसका ठिकाना बताया, किसी ने
नदियों के किनारों पर,
किसी ने नदियों के संगम पर उसका ठिकाना बताया और कुछ ने पैगम्बरों के जन्म स्थानों को।
उन झूठे ठिकानों पर लोगों नें लगातार यात्रायें की। किसी ने बताया कि उसकी
प्रशंसा में लिखे किताबों के शब्दों को बार बार दुहराने से उसकी प्राप्ति हो सकती
है। फिर लोगों ने मन्त्र को उपासना की पद्धति बना दी। मन्त्र इसलिए कि उसका अर्थ
हर कोई नहीं जानता था। जिसने उसे बनाया उसने बस कहा कि दुहराते रहो।
चूँकि पुरोहित मन्त्र दे रहा है, तो बदले में चढ़ावा भी अपेक्षित है। लोग इस तरह
से पुरोहितों से ईश्वर उपासना में मदद लेने लगे और बदले में हर प्रकार की सामग्री
उन्हें देने लगे। पुरोहित ने भी नैतिक रूप से जनता पर अपना प्रभाव बनाये रखने के
लिए कहा कि यह चढ़ावा मुझे नहीं ईश्वर को दो। ईश्वर की मूर्ति, चर्च, मंदिर आदि
में चढ़ाया गया चढ़ावा,
सम्पति सब पुरोहितों का होने लगा।
जो अमीर था उसने जमीन के बड़े टुकडे दिए, सोना दिया, चाँदी दिया। इनसे कुछ तो उपासना स्थल बना और अधिकतर धन और
सम्पति पुरोहित अपने उपभोग में लगाने लगे। उनका पद, महत्व और ताकत बढ़ने लगी। उसने कबीले के प्रमुख
से भी अधिक ख्याति और गौरव हासिल कर लिया। चूँकि कबीला का प्रमुख भी ईश्वर और धर्म
की संकल्पना की चपेट में था। इसलिए वह भी पुरोहित के सामने झुकने लगा। कबीला का
प्रमुख उससे आशीर्वाद लेने लगा। उसकी बात मानने लगा। बाद के दिनों में जब राजा बने
और राज्य का क्षेत्र कबीला न होकर बड़ा प्रदेश होने लगा, राजा ने
पुरोहितों को बड़े-बड़े पद दिए और सुविधायें दी।
लेकिन किसी को भी उस ईश्वरीय शक्ति से मुलाकात नहीं हुई। कुछ दार्शनिकों ने ध्यान और विपश्यना की भी खोज की। और चूँकि ईश्वर इतने हजारों-लाखों सालों में किसी को मिला नहीं तो उन्होंने ध्यान में हुए अनुभव को आत्म-साक्षात्कार कहना शुरू कर दिया। इसे ही लोग ईश्वरीय अनुभूति भी बताने लगे।
उधर रूढ़ बन गयी धार्मिक किताबें चलती रहीं। कौन-सी उपासना पद्धति सही है और
कौन से उपासना पद्धति को मानने वाले सही हैं, इसकी भी प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी। आपसी भेद ने
लडाई का रूप भी ले लिया। जब शक्तिशाली व्यक्ति अथवा राजा इसमें शामिल हुआ, तो धर्म के
नाम पर युद्ध हुए। पुरोहित भी राजा को इसके लिए भटकाते-उलझाते रहे।
पहले राजा और अब सरकारों में बैठे लोगों को भी पता है कि धर्म और ईश्वर का
परंपरागत रूप से आम जनमानस में बहुत प्रभाव है, इसलिए राजनीति में धर्म का एक हथियार की तरह
प्रयोग बढ़ने लगा। समुदाय विशेष तथा राज्य विशेष का अलग धर्म होने से अथवा
बहुसंख्यक समुदाय का अपने राजनीतिक फायदे के लिए नेताओं द्वारा धार्मिक भावना को
इस्तेमाल करने का खेल भी शुरू हो गया।
आज भी लोग उस ईश्वर की प्राप्ति के लिए और उसको खुश करने के लिए असंख्य निर्दोष
प्राणीयों की बलि दे रहे हैं। उन्हें तड़पा-तड़पा कर मार रहे हैं। फिर उसके मांस
को भुनकर खा जाते हैं। सब ईश्वर के नाम पर। ईश्वर को खुश करने के लिए लोगों ने
इंसानों की बलि भी देने की परंपरा शुरू की। बलि किसकी, तो जो कमजोर होगा। कोई पागल, भुला-भटका राही, गुलाम या
अपना अथवा किसी अन्य का अबोध बच्चा। औरत की भी बलि दी गयी। सत्ती प्रथा तो याद है
न। सब धर्म और ईश्वरीय विधान के नाम पर। मरने के बाद और जीवित रहते भी अच्छे जीवन
के लिए।
एक तरफ ईश्वरीय पागलपन जिसकी शुरुआत अज्ञानता, भय और चमत्कार से हुआ था जारी है। दूसरी तरफ, हजारों हजारों-लाखों लोग आज भी भुखे मर रहे हैं। स्वस्थ्य
सुविधाओं की कमी से मर रहे हैं। किसान आत्म-हत्या कर रहे हैं। मंदिरों में प्रवेश
के लिए लोग मरे जा रहे हैं। एक तरफ कितने लोग बेघर हैं और सड़क पर सोने को बाध्य
हैं।
दुसरे तरफ,
अम्बानी जैसे कितने ही लोग आलीशान महल बना कर इंसानियत पर मजाक बना रहे हैं।
राजनीति मन्दिर-मस्जिद से निकल
नहीं पा रही है और सरकार बलात्कार, हिंसा आदि को रोकने को प्राथमिकता में शामिल
नहीं कर रही है। धर्म के नाम पर बाबा बलात्कार करते हैं, अय्याशी करते
हैं। फिर भी जनता धर्म के नाम पर पागल बनी रहती है। उन्हीं बाबाओं की शरण में
हमारे राजनेता और मिनिस्टर जाते हैं।
हालाँकि लोगों के लिए, उनका
ईश्वर कहीं नहीं आता मदद करने को। तब भी पागलपन है कि कम ही नहीं होता। चंद लोग
अकूत सम्पति के ढेर पर बैठे संसाधनो को अपने शिकंजा में ले चुके हैं और उनका
शिकंजा बढ़ता ही जा रहा है। सरकार शिक्षा, स्वस्थ्य, रोजगार, आवास और भोजन भी सुनिश्चित नहीं कर रही।
चुनावी मौकों पर उसी धर्म नामक हथियार से वे विजयी हो जाते हैं। इतना ही नहीं, भारतीय समाज
में तो जाति-वर्ण का विधान भी है। वह भी धार्मिक मान्यता प्राप्त। हर इन्सान अपने
कर्म की जगह अपनी जातीय पहचान से सामाजिक हैसियत पाता रहा है। किसी जाति विशेष में
जन्म लेने मात्र से कोई व्यक्ति श्रेष्ठ हो जाता है और कोई निकृष्ट।
जो ऐतिहासिक काल में जाति और धर्म के सुविधाओं के चलते श्रेष्ठ समझे जाते रहे, आज भी ज्यादातर संसाधनों पर उनका ही प्रभुत्व है। सत्ता के सभी स्रोतों पर उनका दखल है, जैसे -धन, भूमि, धर्म, राजनीति, बड़े पद, तकनीक, जाति, लिंग आदि। ईधर चुपचाप है, शोषित-उत्पीड़ित बहुसंख्य लाचार है। उन्हें लगता है कि उनकी लाचारी और गरीबी का कारण पिछला जन्म का पाप है अथवा ईश्वर की मर्जी है।
उन्हें यह चीज नहीं समझ आती कि ईश्वर होता, तो लोगों से इतना भेदभाव कैसे करता? एक मासूम बच्ची के साथ उपासना गृह में
बलात्कार होने के लिए छोड़ देता? भूख से एक परिवार को मरने
देता? बाढ के दौरान और उसके बाद कमजोर लोगों को महामारी का
शिकार होने देता? बच्चियों की खरीद-फरोख्त होने देता? यह सब वे नहीं सोच पाते। क्योंकि वे व्यस्त हैं, अपनी भूख के
शमन के लिए। एक टुकड़ा रोटी के इंतजाम में।
दूसरी तरफ,
जिनके पास सत्ता और संसाधन है वे सीख रहे हैं अपने धन और संसाधन को कैसे किया जाय
एक ही साल में कई गुना। तकनीक इसमें मददगार साबित हो रही है। पुरोहित वर्ग को
चिंता नहीं क्योंकि उसका धंधा भी ठीक है और उनके परिवार और बिरादरी से बड़े पदों पर
हैं। संसाधनों पर भी कब्ज़ा है। ऐसे में वे नहीं चाहते कि सत्ता और संसाधनों पर आम
लोग अपनी दावेदारी करें।
इसलिए उन्हें धर्म और ईश्वर के नाम पर भ्रमित रखा जा रहा है। उनको लूटा भी जा
रहा है,
झूठी परंपरा और रिवाजों के नाम पर। लेकिन सबसे बुरा जो वे कर रहे हैं वह है, उनके
मस्तिष्क को पंगु बनाये रखना। इसलिए आज भी शिक्षा में कटौती जारी है। जाति के
विरुद्ध कोई सरकार मुहीम नहीं चलाती। अन्धविश्वाश पर कोई कार्यक्रम नहीं बनाती।
संसाधनों पर सबका अधिकार है ऐसा नहीं कहती। तकनीक और विज्ञान की पढाई सबकी पहुँच
में हो ऐसा नहीं करती।
दरअसल सत्ताधारी-वर्ग हर वह कार्य करने से बचती है जिससे आम-जनमानस का मानसिक
विकास होता है और उनमें सोचने-समझने की क्षमता बढ़ती है। दूसरी तरफ, उन्हें
गुमराह करने के लिए धर्म,
मंदिर-मस्जिद,
पाकिस्तान,
क्रिकेट आदि में उलझाकर रखा जा रहा है।
ऐसे में एक सवाल उत्पीड़ितों का उस ईश्वर-अल्लाह-गॉड
से तो बनता ही है – ‘हे ऊपर वाले! इतना भेदभाव, शोषण और गैर-बराबरी पर भी चुप्पी क्यों? आखिर कहाँ छुपे हो भाई?’