पूरी दुनिया में
पोथियों की धुम मची है। लोगबाग कहते भी हैं बिन पोथी जग सुन। हालाँकि नये कबीर
कहते हैं, “पोथी पढ़ी-पढ़ी जग मुआ, खंडित हुए सब कोई, पाँच अखर पढ़े कॉमन सेंस का, वही हुआ पंडित साफगोई।”
औद्योगिक क्रांति के
पूर्व उद्योग के नाम पर पूरी दुनिया में धार्मिक औद्योगिकीकरण चल रहा था। थोक मेँ
धार्मिक पोथियों का उत्पादन किया जा रहा था। पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में लेने
के लिए धार्मिक पोथियों के बीच काँटों की प्रतिस्पर्धा थी। अपनी पोथी को अधिक
खपाने के लिए सभी पोथियों में ईश्वर द्वारा रचित का टैग भी लगाया जा चुका था।
इन पोथियों को ईश्वर रचित मान कर पढ़ने वालों ने इसे प्रकृति ईश्वर
द्वारा रचित कृत्रिम उत्पाद मान लिया था। वे चाहते थे कि चुनांचे उन्होंने उन
पोथियों को पढ़ लिया था और पढ़ कर आहलादित हो चुके थे इसलिए दूसरे भी उसे पढ़ें और
आहलादित हो लें। उन्होंने दूसरों को जबरदस्ती पढ़वाने के लिए खूब तलवारें चमकाये, करोडों गर्दनों को पोथी के नाम धड़ से अलग किए।
आज यह पोथियों की लड़ाई तोप, गोलों से लेकर गाय मूत्र तक से लड़ी जा रही है। विज्ञान की पहुंच माधो और
घेसु के घर तक हो गयी, लेकिन ईश्वर के टैग से बँधे इन पोथियों
का पठन-पाठन बद्दस्तूर जारी है। धर्म और धार्मिक पोथियों के नाम पर चमत्कार का खेल
अब भी चालू है। एक दिन ये पोथियां परमाणु बम भी फोड़ने के कारण बनेंगे, लेकिन पोथी प्रेमी तब भी कहेंगे – “पोथी नहीं सिखाता किसी से बैर
करना।”