प्राचीन भारतीय समाज संरचना मुख्यतः चातुवर्ण्य पर आधारित है। इसकी पुष्टि अनेक धर्मग्रन्थों के तथ्यों से हो चुका है। डॉ. अम्बेडकर के अनुसार, यह सामाजिक संरचना न केवल श्रम का विभाजन है, अपितु श्रमिकों का भी विभाजन है। जो जन्मजात असमानता पर आधारित है। यह सामाजिक संरचना श्रम के साथ साथ आर्थिक विषमता को भी बनाये रखती है। यह न केवल मनुष्य के अपने जन्मजात क्षमताओं को दमित करती है, वरन् मनुष्यत्व को ही नकारती है। चातुवर्ण्य व्यवस्था मनुष्य-मनुष्य में भेद निर्मित करने वाली अत्यंत शोषणकारी व दमनकारी व्यवस्था है। जो पीढ़ी दर पीढ़ी जन्म से ही गुलामी जैसी व्यवस्था को बनाये रखती है। चूंकि इस व्यवस्था को धार्मिक आधार मान्यता प्राप्त है। इसलिए इस धर्मान्ध-जातिवादी समाज-व्यवस्था ने भारत के बहुसंख्यक वर्ग को हीनता व सम्पत्ति से विमुख जीवन जीने को मजबूर किया। चातुवर्ण्य व्यवस्था का मुख्य अभिधेय श्रमों का विभाजन नहीं है। बल्कि यह सोच है कि बहुसंख्यक वर्ग को चाहे जैसे भी हो मजदूर, मजलूम बनाये रखो और श्रम का मूल्य भी इतना अल्प दो कि वे दासता में बने रहे। वेद, संहिता, पुराण एवं स्मृति ग्रन्थों में इस चातुवर्ण्य को अभिजात वर्ग ने ऐसे पिरोया की दासतापूर्ण जीवन यापन करते हुए हजारों वर्षों तक बहुसंख्यक समुदाय को यह लगे कि उनका जन्म तीन वर्णों की सेवा व दासता के लिए ही हुआ है।
हजारों वर्षों की इस दयनीय शोषणकारी व्यवस्था को सर्वप्रथम महात्मा जोतिबा फुले ने अपनी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ में उजागर किया। सर्वप्रथम उन्होंने ने ही यह प्रतिपादित किया कि धर्म ग्रन्थों में वर्णित असमानता को ध्वस्त करना और समता स्थापित कर “एकमयराष्ट्र” की परिकल्पना की जा सकती है।
इसी बात को बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अपने जाति-प्रथा
विध्वंस (Annihilation of
caste) में दोहराते हुए कहा है कि जो धर्म ग्रन्थ मनुष्य-मनुष्य
में विभेद बनाये रखने को कहता है उन्हें ध्वस्त किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी
प्रतिपादित किया कि महात्मा जोतिबा फुले के सत्यशोधक आंदोलन के वे ही अन्तिम
प्रतिनिधि के रूप में बचे हुए हैं और उनका कार्य कर रहे हैं। बहिष्कृत वर्ग परिषद, माणगाव, संस्थान कागल 21/22 मार्च सन 1920 के प्रथम दिवस के अपने उद्बोधन में डॉ. अम्बेडकर ने प्रतिपादित किया कि “जिस हिन्दु धर्महम हिस्सा है, उस हिन्दु धर्म के व्यवहार में मनुष्य का संघटन दो आदितत्व के अनुसार
दृष्टिगोचर है। एक जन्मसिद्ध योग्या योग्यता और दुसरा जन्मसिद्ध पवित्रा पवित्रता।
यदि इन दो सिद्धांतों के अनुसार हिंदुओं को विभाजित किया जाता है, तो यह तीन वर्ग बन जाता है।
1.
जन्म से सबसे
महान और पवित्र वही है जिसे हम ब्राह्मण वर्ग कहते हैं।
2.
जिनकी
जन्मसिद्ध श्रेष्ठता और पवित्रता ब्राह्मण से कम है, वे गैर-ब्राह्मण हैं।
3.
जो वर्ग हीन
और अपवित्र पैदा होता है वह हमारा बहिष्कृत वर्ग है।
इन तीनों
वर्गों को इस प्रकार वर्गीकृत करके धर्म द्वारा निर्धारित श्रेष्ठता और पवित्रता
के विषम अनुपातों से प्रभावित किया गया है। जन्मसिद्ध श्रेष्ठता और पवित्रता के
कारण एक दुराचारी (गुणहीन) ब्राह्मण को भी लाभ हुआ है। अवर्णिक (त्रेवर्णिकों से
इतर बहिष्कृत वर्ग) जन्मसिद्ध अयोग्यता से ग्रसित हैंअर्थात् इस दमनकारी व्यवस्था ने
अयोग्य मान लिया है।वे पीछे रह जाते हैं क्योंकि उनके पास ज्ञान नहीं है, लेकिन ज्ञान और सामग्री प्राप्त करने का तरीका उनके लिए
खुला है। भले ही उनके पास आज दोनों न हों, कल वे उन्हें प्राप्त कर लेंगे। हालांकि, हमारे बहिष्कृत वर्ग की स्थिति जन्मसिद्ध अयोग्यता और अपवित्रता
के कारण बहुत ही दयनीय हो गई है। कई दिनों से अयोग्य और अपवित्र माने जाने
के कारण हमारे नैतिक उत्थान और स्वाभिमान के मूल कारण पूरी तरह से गायब हो गए हैं।
सामाजिक रूप से उन्हें त्रेवर्णिकों की तरह अधिकार नहीं हैं। वे स्कूल नहीं जा
सकते। उन्हें सार्वजनिक कुओं को भरने, सड़क पर चलने,
वाहन का उपयोग करने आदि के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया
है। जन्मसिद्ध अयोग्यता और अपवित्रता के कारण उन्हें समान रूप से आर्थिक कष्ट है।
व्यापार,
नौकरी और कृषि, धन के तीन स्रोत,
उनके लिए खुले नहीं हैं।”
बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के उपरोक्त भाषण को उद्धृत इसलिए किया गया है कि उन्होंने यहाँ स्पष्ट रूप से यह बतलाया है कि “जन्मसिद्ध श्रेष्ठता और पवित्रता के कारण एक दुराचारी (गुणहीन) ब्राह्मण को भी लाभ हुआ है।” इसलिए यह धर्माधारित श्रेष्ठता निश्चय ही अन्यायपूर्ण व स्वजनों के हितके लिए निर्मित षड्यंत्र व्यवस्था है। इसलिए बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर मजदूर और शोषित वर्ग के लिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
मजदूरों के हितैषी डॉ. अम्बेडकर ने 15 अगस्त 1936 में स्वतंत्र मजदूर पक्ष की स्थापना की। स्वतंत्रता पूर्व काल में यह एक क्रांतिकारी व महत्वपूर्ण घटना है। दलित वर्ग कर्मचारी परिषद 12,13 फरवरी 1938 में अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में मजदूरों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय मजदूरों के दो शत्रु है- ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद।
वे एक महान
समाज सुधारक,
विचारक, अर्थशास्त्री, शिक्षक, विधिवेत्ता, प्रख्यात सांसद, संपादक,
लेखक, प्रख्यात वकील, प्रोफेसर और सांसद थे। उन्होने अनेक कार्यक्षम पदों पर रहकर
महत्वपूर्ण कार्य किया। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व व कार्य पर सभी का ध्यान आकृष्ट
रहा।
केंद्रीय श्रम
मंत्री के रूप में कार्यभार संभालने के बाद, डॉ अम्बेडकर ने कहा,
"समय बदल गया है। सत्ता और कानून के बल पर मजदूर वर्ग का दमन
संभव नहीं है। मजदूर एक इंसान है और उसे
मानवाधिकार मिलना चाहिए। फिलहाल सरकार के सामने तीन सवाल हैं। एक समझौता, श्रमिकों की निश्चित मजदूरी एवं शर्तें, श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध!
श्रमिकों के जीवन स्तर को ऊंचा किया जाना चाहिए। हमें अपने बच्चों की शिक्षा पर
ध्यान देना चाहिए। मैं हमेशा मजदूर वर्ग के साथ खड़ा रहूंगा।"
इस तरह
उन्होंने साफ कर दिया था कि उनका रुख शोषितों और मजदूरों के पक्ष में रहेगा।
श्रम मंत्री के
रूप में कार्य करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए। ब्रिटिश मन्त्री
मण्डलमें (1942-46) में उन्होंने सेवायोजन (एम्ल्पायमेण्ट एक्सचेंज) की स्थापना
की। जिससे भारतीय अनुभव सम्पन्न व अर्धशिक्षित व्यक्तियों को रोजगार मिल सके।
उन्होंने उद्यमियों और श्रमिकों के मुद्दों के समाधान के लिए एक औद्योगिक परिषद के
स्थापना की पहल की। उन्होंने कई क्षेत्रों जैसे उनके अधिकार, मजदूरी, काम के घंटे, बीमा और स्वास्थ्य देखभाल में श्रमिकों के लिए समानता
सुनिश्चित करने के लिए श्रम कानून में बदलाव की शुरुआत की।
उन्होंने
औद्योगिक विवादों को निपटाने के लिए एक संहिता का मसौदा तैयार करने की पहल की।
उन्होंने हमेशा श्रमिकों और केंद्र सरकार के बीच समन्वय सुनिश्चित करने के लिए एक
श्रमिक सम्मेलन आयोजित करने पर जोर दिया। ऐसे ही एक सम्मेलन में उन्होंने मजदूरों, मजदूर नेताओं के साथ-साथ फैक्ट्री मालिकों को भी बुलाने की
आधारशिला रखी। परिणामस्वरूप, नियोक्ता और
कर्मचारी दोनों एक दूसरे के प्रश्नों को समझ गए। समय-समय पर मजदूरों की भूख हड़ताल, हड़ताल और रैलियाँ कम संख्या में होने लगीं। उनके द्वारा
किए गए उपाय श्रमिकों के समग्र कल्याण के लिए महत्वपूर्ण हो गए। उन्होंने केंद्र
में एक स्थायी सलाहकार समिति स्थापित करने की मांग की, जो अंतर्राष्ट्रीय श्रम परिषद के निदेशक मंडल पर आधारित हो।
इसमें केंद्र सरकार के प्रतिनिधि, प्रांतों के
प्रतिनिधि,
राज्यों के प्रतिनिधि, निर्माताओं के प्रतिनिधि और श्रमिकों के प्रतिनिधि होंगे।
इसने कुशल और
अर्ध-कुशल श्रमिकों के लिए रोजगार विनिमय केंद्रों की स्थापना को भी गति दी। ऐसे
केंद्र में प्रांतीय सरकार के प्रतिनिधि शामिल थे। उन्होंने विभिन्न उद्योगों में
"श्रम अधिकारी" नियुक्त करने का निर्णय लिया ताकि श्रमिकों की समस्याओं
को समझा जा सके,
उनकी समस्याओं का समाधान किया जा सके, श्रमिक-नियोक्ता संघर्षों को टाला जा सके और
श्रमिक-नियोक्ता संबंध मैत्रीपूर्ण रह सकें।
स्वतंत्रता-पूर्व काल में लालच, युद्ध, जातिवाद और गरीबी विश्व में तीन प्रमुख मुद्दे थे। नतीजतन, कई कमजोर राष्ट्र गुलामी में बने रहे। डॉ. अम्बेडकर कहते हैं कि जाति की समस्या आर्थिक प्रभुत्व के कारण उत्पन्न हुई है। उसके लिए कमजोर देशों को मजबूत बनना होगा। औद्योगिक विकास होगा तो जातिवाद की समस्या दूर हो जाएगी।
डॉ. अम्बेडकर का मत था कि किसी भी देश का विकास श्रम और उद्योग की वृद्धि पर निर्भर करता है। श्रम मंत्री के रूप में काम करते हुए, डॉ अम्बेडकर ने श्रमिक संघ विधेयक पेश किया। विधेयक में उद्यमियों को ट्रेड यूनियनों को मान्यता देने के लिए मजबूर करने, ट्रेड यूनियनों को "यूनियनों" के रूप में मान्यता देने के लिए, और यूनियनों को मान्यता देने से इनकार करने वाले उद्योगपतियों के लिए दंड के प्रावधान शामिल हैं। विभिन्न उद्योगों में एक संघ होने का, आज श्रमिकों को जो विभिन्न सुविधाएं मिल रही हैं, उसका सारा श्रेय डॉ. अम्बेडकर को ही जाता है।
यह नहीं भूलना
चाहिए कि डॉ. अम्बेडकर ने श्रम अधिनियम में महिला श्रमिकों को कारखानों में पुरुष
श्रमिकों के समान वेतन देने का प्रावधान किया था। पुरुषों और महिलाओं के बीच
भेदभाव के बिना समान काम के लिए समान वेतन का सिद्धांत पूरे भारत में लागू किया
गया था। यह डॉ. अम्बेडकर के दृष्टिकोण को दर्शाता है।
डॉ. अम्बेडकर
ने कारखाना अधिनियम,
1934 में महत्वपूर्ण संशोधनों का सुझाव दिया था। वे
कार्यकर्ताओं के लिए महत्वपूर्ण थे। पिछली धारा 9 के अनुसार,
कारखाना मालिक निरीक्षक को सूचित करने के लिए बाध्य नहीं
था। लेकिन नए संशोधन ने निर्माता को सूचित करना अनिवार्य कर दिया। पिछले खंड के
तहत,
कारखाने में शौचालय होना अनिवार्य नहीं था। लेकिन इसने सभी
कारखानों के लिए शौचालय होना अनिवार्य कर दिया। फैक्ट्री मालिक तय करता है कि
फैक्ट्री में आग लगने की स्थिति में निकास मार्ग (सुरक्षा उपाय) क्या होने चाहिए।
बिल में कहा गया है कि सरकार के पास फ़ैक्टरी इंस्पेक्टर की रिपोर्ट के अनुसार
सुरक्षा उपायों पर निर्णय लेने का अधिकार होगा। एक साल के कारखाने के लिए काम के
घंटे 54 घंटे और मौसमी कारखाने के लिए प्रति सप्ताह 60 घंटे थे। उन्होंने इसे क्रमशः 48 और 54 में बदल दिया।
श्रमिकों के
लिए ओवरटाइम की दरें फैक्ट्री अधिनियम के समान नहीं थीं। तब डॉ. अम्बेडकर ने सभी
फैक्ट्रियों में ओवरटाइम दरों को दोगुना करने का निर्देश दिया ताकि उसमें एक
फॉर्मूला हो। लगभग सभी फैक्ट्रियां मजदूरों को सवैतनिक अवकाश देने की बात कर रही
थीं। इसलिए,
यदि कोई कर्मचारी बीमार पड़ जाता है या किसी महत्वपूर्ण
पारिवारिक कार्यक्रम के लिए समय निकालता है, तो दिन का वेतन काट लिया जाता है। इस बात का आभास होने के बाद डॉ. अम्बेडकर ने
कहा कि श्रमिकों के स्वास्थ्य और दक्षता को देखते हुए उन्हें छुट्टी मिलनी चाहिए।
यह भूमिका निभाई। लगातार बारह महीने से काम कर रहे श्रमिकों को सात दिन के सवेतन
अवकाश के प्रावधान से मजदूर वर्ग को बड़ी राहत मिली है।
उन्होंने भारतीय ट्रेड यूनियन विधेयक को पारित कराने के लिए विशेष प्रयास किए। इसने कारखानों में स्थापित ट्रेड यूनियनों की मान्यता के मुद्दे का प्रस्ताव रखा। डॉ. अम्बेडकर ने सुझाव दिया कि नियोक्ताओं और श्रमिकों के बीच सहयोग स्वैच्छिक आधार पर होना चाहिए और उसी आधार पर यूनियनों का गठन किया जाना चाहिए। आज विभिन्न कारखानों में ट्रेड यूनियन कुशल प्रतीत होते हैं। इस बात से कोई इंकार नहीं है कि इसके पीछे डॉ. अम्बेडकर का हाथ है।
स्वतंत्र श्रम
विभाग के शुभारंभ के साथ,
डॉ अम्बेडकर ने प्रांतीय सरकारों को श्रम कानून बनाने की
शक्ति दी। हालाँकि,
इन कानूनों को बनाने में, यह श्रमिकों और नियोक्ताओं के हित में है, बीमारी के मामले में श्रमिकों की मदद करना, श्रमिकों का न्यूनतम वेतन तय करना, नियोक्ता का अधिकतम लाभ क्या होना चाहिए, के बीच विवादों को निपटाना श्रमिकों और उद्योगपतियों को, श्रमिकों को तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए, प्रांतीय सरकार को।
इसके अलावा, फैक्ट्री को महीने की समाप्ति के बाद अधिकतम 10 दिनों के भीतर मजदूरी का भुगतान करना चाहिए, भविष्य के लिए श्रमिकों की मजदूरी में कटौती करनी चाहिए, गलती होने पर श्रमिकों को कितना और कैसे दंडित करना चाहिए।
वे कई मुद्दों पर स्पष्ट निर्देश जारी करते हैं, जैसे कि कर्मचारी के अनुपस्थित रहने पर कितना भुगतान करना है।इस तरह श्रम
मंत्री के रूप में उन्होंने इस विभाग में आमूलचूल परिवर्तन किया और निर्माताओं और
श्रमिकों को न्याय दिलाया।
उन्होंने
श्रमिकों के कल्याण के लिए धन जुटाने, उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाने का आह्वान किया। उन्होंने निर्देश दिया कि
प्रत्येक श्रमिक को एक निश्चित वेतन दिया जाए, काम के घंटे कम किए जाएं, ट्रेड
यूनियनों को मान्यता दी जाए, श्रमिकों और
नियोक्ताओं के मुद्दों को देखा जाए और श्रमिकों के समग्र विकास के लिए श्रम
आयुक्तों की नियुक्ति की जाए। इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर ने श्रम मंत्री के रूप में
अपनी पहचान बनाई।
– शुभमचित्त
लेखक
सांची-बौद्ध भारतीय ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश में पी-एच.डी.
शोधार्थी हैं।