रंडी हूँ मैं।
हाँ सही सुना तुमने।
मांस का लोथड़ा,
जो खुराक है तुम्हारी हवस की।
एक बदन जो,
इलाज है इस समाज की,
हवा में घुली हुई वासना की।
पूरे कपड़े पहने हुए भी तुम्हारे लिए नंगी हूँ मैं,
सही फरमाया,
रंडी हूँ मैं।
मगर ये सोच कर देखो ये नाम मुझे दिया किसने?
जिसके लिए मरते हो तुम और जिसे सबके सामने,
बताते हो तुम धब्बा समाज का।
ऐसा काम मुझे दिया किसने?
सोचना कभी,
नोंचते हुए मेरे तन बदन को।
घाव देखें होंगें मेरे शरीर के,
देखना कभी मेरे छलनी हो चुके मन को।
अपने ईमान का नहीं,
अपने तन की खाती हूँ,
इसीलिए घमंडी हूँ मैं।
हाँ साहब रंडी हूँ मैं।
अपने दो बूंद वीर्य के गिरा कर,
जब आपके अंदर का पत्थर मन,
दो मिनट सुस्ताने लगेगा।
तब अपने अंदर के मर रहे इंसान से पूछना ज़रा,
ये जो पैसे दे कर नोचा है जिस्म मेरा,
क्या इससे अलग है वो जिस्म जो तुम्हारे घर पर है,
जो तुम्हारा इंतजार कर रहा?
मगर जाने दो।
तुम क्या जानोगे मुझे? तुम्हारे लिए तो औरत नहीं,
तुम्हारी हवस मिटाने वाली ज़िस्म की मंडी हूँ मैं।
जोर ज़ोर से कहो, हाँ, रंडी हूँ मैं।
फर्क मुझमें और घर में बंद उस औरत में इतना है,
घर के खाने में और बाहर के खाने में जितना है।
उसे नोंचता है रात के अंधेरे में,
अपना हक समझ कर कोई एक।
और मुझे नोचते हैं उन एक जैसे,
ना जाने कितने, अनेक।
ना खुशी मेरी पूछी जाती है,
ना मर्जी उसकी।
मगर फिर भी वो पवित्र है,
क्योंकि इज्जत तुम्हारे घर की।
मुझे क्यों दोगे इज्जत?
मैं तो ठहरी बाजार की।
चलो तुम कहते हो तो,
मान लिया तुम्हारी,
नियत नहीं खराब।
बल्कि गंदी हूँ मैं।
हाँ,
बाबू जी, रंडी हूँ मैं।
Courtesy: Pursue News |
~ मुझ पर ही लार टपकाने वाले भेड़ियों द्वारा अपने घर/ समाज में
पहुचते ही मुझे गन्दी रंडी कहने जाने वाले ढोंगी धर्मिकता का चोला ओढ़े पुरूषों से
पीड़ित एक वैश्या।