यह परंपरा, संस्कृति, धर्म भी अंततः किसके हाथ का हथियार है?

आदिवासी लड़कियों और स्त्रियों के मन में ढेर सारे सवाल हैं। उनके भीतर वे गहरे दबे हैं। उनको सुनने, उनसे संवाद करने वाला कोई नहीं। एक उम्र, एक समय जब उनको, उनके सवालों का सही और तार्किक जवाब दिया जाना चाहिए, ठीक उसी उम्र में उन्हें धर्म अपने कब्जे में ले लेता है और सिखाता है कि स्त्रियों को हमेशा किसी न किसी के अधीन रहना चाहिए। लड़कियां इसका अभ्यास करती हुई बड़ी होने लगती हैं।


पिता से वे कुछ पूछना चाहती हैं पर पिता मजदूरी करने शहर चले जाते हैं। मां घर, खेत, बच्चे संभालती है। घर पिता या पुरुषों का है, पर जीवन भर उसे संभालती मां है। ज़मीन पिता का है, पर सारा जीवन उस ज़मीन पर खटती मां है, बेटियां हैं, स्त्रियां हैं। ज़मीन, जंगल बचाने के लिए आदिवासी स्त्रियां, पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ती हैं। पीठ पर बच्चे बेतराकर वे धरने में पहुंचती हैं और ठीक उसी समय पुरुष चुपके से पीठ पर दारू ढोकर पहुंचता है। और रात ख़ाली बोतल सा कहीं लुढ़का रहता है।


ज़मीन बचाने के लिए लड़ते-लड़ते एक दिन पुरुष कब दलाल में तब्दील हो जाता है, पता नहीं चलता। स्त्रियां मूक उन्हें ताकती रह जाती हैं। ज़मीन के लिए खटने, लड़ने-भिड़ने वाली स्त्रियों के हिस्से इस धरती पर ज़मीन का कोई टुकड़ा नहीं आता है।


स्त्रियां कुछ कहती नहीं। वे कहेंगी भी तो सामूहिक रूप से उनकी आवाज़ परंपरा- परंपरा, संस्कृति-संस्कृति के नाम पर दबा दी जाएगी। यह परंपरा, संस्कृति, धर्म भी अंततः किसके हाथ का हथियार है? वह किसकी रक्षा करता है? किसको सशक्त करता है? गांव-गांव की लड़कियों और स्त्रियों के मन में बहुत सारे सवाल हैं पर वे किससे कहें?


स्त्रियों और बच्चों के साथ हाल के दिनों में लगातार संवाद से महसूस होता है कि वे अपने बीच हर तरह के संवाद की सख्त जरूरत महसूस करती हैं। इन दिनों आदिवासी गांवों में लगातार लड़कियों और स्त्रियों के साथ बैठक, संवाद करने से उनके भीतर की गिरहें खुल रही हैं। मैं उन्हें पढ़ रही हूं। थ्योरी से अलग ज़मीन पर सच्चाई क्या है, इसे देख रही हूं। इन दिनों जीवन में शामिल हो रहीं लड़कियों के जीवन में बड़ा बदलाव महसूस कर रही हूं। देर रात तक घर, समाज के भीतर और बाहर उनके संघर्ष को सुन रही हूं।


कल गांव की लकड़ियों ने कहा कि वे कहानियां पढ़ना चाहती हैं। वाम प्रकाशन से प्रकाशित कहानी संग्रह "कितने यातना शिविर" में नए युवा कथाकारों की कहानियां हैं। झारखंड की ज़मीन की कथाएं हैं इसमें। मेरी भी एक कहानी " कब्र की ज़मीन" प्रकाशित है। मैंने कुछ किताबें उन्हें पढ़ने को दी। वे तत्काल किताबें उलटने-पलटने लगी।


एक दिन हर लड़की को, हर स्त्री को इस समाज को नए सिरे से देखना होगा और सवालों के जवाब मिलकर ढूंढना होगा। क्योंकि जन्म से उनका संघर्ष दोहरा है। एक संघर्ष भीतर है और दूसरा संघर्ष बाहर है। एक संघर्ष ब्राह्मणवाद या वर्णवाद से है और दूसरा संघर्ष मर्दवाद और उसकी व्यवस्था, मानसिकता से है।


– जसिंता केरकेट्टा


वे चर्चित  युवा कवयित्री और लेखिका हैं।  उनकी कविताएं  जल, जंगल, जमीन, लैंगिक भेदभाव, समाज में धर्म की भूमिका  आदि पर हैं।  लेख और तस्वीर उनके फेसबूक से साभार।

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