भारतीय
इतिहास के पन्नों पर गौतम बुद्ध एक ऐसा नाम हैं जिसे भुलाया नहीं जा सकता। ईसा
पूर्व छठी शताब्दी में उत्पन्न यह महापुरुष सम्पूर्ण विश्व के युगपुरुष बन गए।
प्रायः उन्हें स्मरण करते समय लोगों को उनके ऐसे पहलुओं से परिचित नहीं कराया जाता, जो एक सामाजिक परिवर्तन की दिशा में क्रांतिकारी बदलाव के कारण बन सके। गौतम
बुद्ध के उपदेश तथा कार्यों का अध्ययन करते समय हमें तत्कालीन भारतवर्ष की सामाजिक,
धार्मिक, भौगोलिक तथा राजनैतिक
विषयों पर चर्चा करना नितांत आवश्यक हो जाता है।
सामाजिक
क्रांति के अग्रनायक के रूप में गौतम बुद्ध को कैसे देखा जा सकता है?
इस विषय की उपस्थापना करना समीचीन है। गौतम बुद्ध ने जहां जहां अपने
जीवन-काल में विचरण किया वहाँ की भौगोलिक
स्थिति को देखा जाए, तो वह गंगा नदी के समीप का दोआब का
प्रदेश दिखलाई पड़ता है। दोआब का प्रदेश होने के कारण यहा की ज़्यादातर जनता खेती
किसानी करती होगी।
उस
समय समाज में वैदिक कर्मकांड का ज्यादा प्रचलन था। वैदिक कर्मकांड में मुख्यतः यज्ञ
प्रमुख थे। उन यज्ञों में पशु बलि देने की प्रथा एवं रूढ़ियाँ वैदिक ब्राह्मण धर्मावलम्बियों
में प्रचलित थी। जिस कारण से अनेक पशुओं का यज्ञ समारंभ में बलि दिया जाता था।
खेती किसानी करने वाली आम जनता के लिए पशु धन का अत्यधिक महत्व था। धार्मिक आडंबरों
के चलते हिंसात्मक विधि से अनेक पशुओं की बलि देना और मेहनतकश जनता का शोषण करना
ही परिलक्षित होता है।
भारतीय
इतिहास में गौतम बुद्ध एक ऐसा युगदृष्टा है,
जिन्होंने सर्वप्रथम इस परंपरा और आडंबर का विरोध किया। पालि त्रिपिटक के दीघनिकाय
के कूटदन्त सुत्त से ज्ञातव्य है कि मगध के खनुमाता नामक ब्राह्मण ग्राम में
कूटदंत नामक ब्राह्मण यज्ञ कराने के लिए 700
गाय,
700
बैल,
700
बकरे,
700 बकरिया इत्यादि को इकट्ठा करवाता है।
उस
समय गौतम बुद्ध भी मगध में ही विहार कर रहे थे। उन्होंने इस ब्राह्मण ग्राम में
जाकर इस प्रकार पशु बलि देकर यज्ञ करने वाले ब्राह्मम धर्म की क्रूर परंपरा का खंडन किया। ऐतिहासिक
प्रमाणों से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में ब्राह्मण-धर्मावलम्बी गाय,
बैल आदि पशुओं की बलि देते थे।
वैदिक
परंपरा में इन पशुओं की बलि देना श्रेष्ठतर माना जाता था जिसका गौतम बुद्ध ने
विरोध किया। वर्तमान भारत में गाय को माता और उसके नाम पर राजनीति करने वालों ने
इस प्रश्न का जवाब देना चाहिए कि वे कौन से लोग थे जो बुद्ध काल में यज्ञ में गाय,
बैल आदि पशुओं की बलि देते थे, जिसका बुद्ध ने
विरोध किया था। सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य में, तत्कालीन वैदिक-ब्राह्मण
धर्म के भीतर व्याप्त रूढ़ियाँ और आडंबर का विरोध दृष्टिगोचर होता है।
प्राचीन
भारत के इतिहास का अवलोकन सामाजिक दृष्टिकोण से किया जाये, तो तत्कालीन समाज व्यवस्था कैसी थी, यह समझना आसान होगा।
पूर्वोक्त है कि बुद्धपूर्व काल में वैदिक-ब्राह्मण धर्म का बोलबाला था। ब्राह्मण धर्म
ही वैदिक समाज व्यवस्था का मुख्य आधार थ। वैदिक-समाज व्यवस्था के अनुसार समाज का चार
वर्णों में विभाजन किया गया था।
ऋग्वेद
के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त में सर्वप्रथम चार वर्णों का उल्लेख मिलता है। विद्वानों
के मतानुसार ऋग्वेदिक काल में यह विभाजन कर्म आधारित था, किन्तु उत्तर वैदिक काल तक आते-आते वह जन्म आधारित हो गया। यह कहा जा
सकता है कि यह सामाजिक विभाजन ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त से ही हुआ है जिसनें
उत्तर वैदिक काल में जन्म आधारित शोषण की व्यवस्था
में परिणत हो गयी। यह व्यवस्था आगे चलकर एक शोषण आधारित संस्कृति का रूप ले ली, जो बुद्ध के काल में भी थी।
इस
प्रकार की शोषणपरक संस्कृति का गौतम बुद्ध ने विरोध किया। प्रचलित तत्कालीन
सामाजिक विभाजन एवं व्यवस्था के कारण शिक्षा और राजनीतिक-सामाजिक सत्ता कुछ लोगों
तक ही सीमित थी। गौतम बुद्ध ने अपने संघ में इस व्यवस्था को तोड़कर समतामूलक समाज की
दिशा में एक पहल की थी।
उन्होंने
संघ के विषय में कहा है कि जिस प्रकार समुद्र से मिल जाने पर यह नहीं कहा जा सकता
कि यह गंगा का पानी है, यह अचिरावती का या
यमुना का पानी है, उसी प्रकार संघ में सम्मिलित किसी भी
व्यक्ति कि पहचान उसके गोत्र या जाति से न होकर उसके कर्म पर ही निर्भर करती है।
इस
संदर्भ में सुत्तनिपात के वसलसुत्त से ज्ञातव्य है कि भारतीय इतिहास में तथागत
बुद्ध पहले ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने यह कहा कि किसी भी कुल में उत्पन्न व्यक्ति
जन्म के आधार पर श्रेष्ठ अथवा कनिष्ठ नहीं हो सकता।
न जच्चा वसलो न
जच्चा होति ब्राह्मणो।
कम्मुना वसलो होति
कम्मुना होति ब्राह्मणो।।
इसका अर्थ है, “जन्म से न कोई श्रेष्ठ होता है और न कनिष्ठ होता है। कर्म से ही व्यक्ति कनिष्ठ होता है अथवा श्रेष्ठ होता है।”
हमें तथागत बुद्ध की
इस बात को समझना होगा। लेकिन इसमें भी सावधानी बरतनी होगी क्योंकि इस संदर्भ में
उन्होंने वर्तमान कालीक कर्मों के विषय में कहा है न कि पूर्वकालीक कर्मों के विषय
में। सनातन वैदिक परम्परा और बुद्ध की विचारधारा में यह बुनियादी अन्तर है।
यहाँ यह उदाहरण
इसलिए उद्धृत किया गया क्योंकि वर्तमान में धर्म की श्रेष्ठताबोध का ज्यादा
बोलबाला है। जन्मजात श्रेष्ठता यह दर्शाता है कि जन्म से ही किसी को योग्य अथवा
अयोग्य मान लेते हैं। क्या किसी वर्ण, जाति,
गोत्र एवं कुल में जन्म होने से कोई योग्य अथवा अयोग्य हो सकता है?
दीघनिकाय
के अम्बट्ठ सुत्त से ज्ञातव्य है कि अम्बष्ठ ! जो कोई जाति में फंसे है,
गोत्रवाद में फंसे है, अभिमानवाद में फंसे है,
आवाह-विवाह में फंसे है, वे अनुपम विद्या और
आचरण की सम्पदा से दूर हैं। अम्बष्ठ! जातिवाद के बन्धन, गोत्रवाद
बन्धन, मानवाद बन्धन और आवाह-विवाह-बन्धन छोड़कर ही अनुपम
विद्या और आचरण की सम्पदा का साक्षात्कार किया जाता है।
संघ
मे जब शाक्य कुमारों को प्रवज्या देने की बात थी उस समय तथागत बुद्ध ने तत्कालीन
निम्न जाति से आने वाले उपालि नाई को प्रथम प्रवाज्जित किया। यह आदर्श प्रचलित
किया कि जन्म से कोई श्रेष्ठ अथवा कनिष्ठ नहीं होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण पालि
तिपिटक एवं बौद्ध साहित्य से शोषणकारी व्यवस्था का विरोध परिलक्षित होता है।
तथागत
बुद्ध का संदेश जिसे तत्कालीन भाषा में धम्म कहा गया उसका उद्देश्य स्पष्ट था जिसे
उन्होंने अपने शिष्यों को कहा था कि “चरथ
भिक्खवे चारीकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय”। बुद्ध की शिक्षा
बहुजनों के हित एवं सुख के लिए है। वे अपने शिष्यों को कहते है कि सर्वत्र भ्रमण
करते हुये स्वयं के हित एवं सुख के लिए और बहुजनों के हित एवं सुख के लिए इस धम्म
का प्रचार करो।
यहा
इस बात को स्पष्ट करना समीचीन प्रतीत होता है कि जिस काल में ब्राह्मण धर्म की वैदिक
समाज व्यवस्था प्रचलित थी उस काल में तथागत बुद्ध बहुजनों को धम्म कि शिक्षा देने
कि बात करते हैं जो तत्कालीन समाज में बहुत क्रांतिकारी बात थी।
इतिहास
के अवलोकन से ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में शिक्षा कुछ ही लोगों तक सीमित
थी। उस परम्परा को तोड़कर सामान्य लोगों कि भाषा में उन्होंने अपने धम्म का प्रचार प्रसार किया।
शिक्षा
कुछ ही लोगों तक सीमित रखने के लिए भी खास भाषा के आग्रह की राजनीति भी प्राचीन
काल से हुआ है। ब्राह्मण धर्म वैदिक परम्परा का सम्पूर्ण साहित्य छान्दस भाषा जिसे
वैदिक संस्कृत कहा जाता है में थी। जिसे पढ़ने और पढ़ाने का कार्य केवल उच्च वर्ण और
खासकर ब्राह्मण वर्ण तक ही सीमित था। इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था को अपने विचार
एवं आदर्शों से तथागत बुद्ध ने परिवर्तित कर दिया।
सम्पूर्ण
मानव जाति के इतिहास में स्वतन्त्रता, समानता,
बंधुत्व और सामाजिक न्याय का संदेश सम्पूर्ण जीवन भर दिया इसलिए
उन्हें सामाजिक क्रांति के अग्रनायक कहा जा सकता है। अंततः यह कहा जा सकता है कि
बुद्ध विचार भी एक रूढ़ि बनकर न रहे और उसका जो यह
सामाजिक क्रांति का संदेश है वो उजागर होता रहे यही प्रयास सभी को करना
चाहिए। बुद्ध के विचारों को न केवल मानें अपितु
धारण कर सामाजिक बदलाव के लिए अमल में लाने का प्रयास करें।
~ शुभमचित्त