भारत में एक नए युग की शुरुआत करने वाले भारतीय सामाजिक सुधारकों के इतिहास में महात्मा जोतीराव फुले का स्थान अद्वितीय है। वे एक विद्रोही सुधारक के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होने न केवल नए विचारों से देश में एक नए समाज की रूपरेखा रखी, बल्कि अपने विचारों को व्यवहार में भी लाया। उन्होंने अपने वैचारिक ढांचे और कार्यों के माध्यम से कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ी।
उन्होंने जाति-व्यवस्था, ब्राह्मण धर्म का वर्चस्व, महिलाओं का शोषण, किसानों और मजदूरों के उत्पीड़न, सांस्कृतिक दासता आदि सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष किया। महिलाओं, दलितों, मजदूरों और किसानों के शोषण को महसूस करने वाले महात्मा जोतीराव फुले वे पहले सामाजिक सुधारक थे, जिन्होनें सपत्नीक लैंगिक और जातिगत भेद के आधार पर शिक्षा देने की परंपरा को कड़ी चुनौती दी। भारतीय समाज बहुआयामी और विषम है। भारतीय समाज में एक बड़ी संख्या शोषित-पीड़ित-वंचित समुदाय के लोगों का है। ऐसे में सिर्फ धार्मिक कल्याण और पुण्य के नाम पर सामाजिक सुधारों के सतही उपाय करके समस्या का निराकरण नहीं किया जा सकता, अपितु समाज में आमूलचुल परिवर्तन करने से ही सामाजिक समानता और न्याय की स्थापना संभव हो सकता हैं, ऐसा उनका मत था।
भारत में सामाजिक जागरूकता के लिए उनका योगदान महत्वपूर्ण है। महात्मा जोतीराव फुले पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होने हिंदू समुदाय के बहुजन समाज में आत्म-सम्मान और आत्म-गौरव उत्पन्न करने का कार्य किया है। उनके कार्यों के अनेक पहलू हैं, जिनसे अनेक लोग आज तक अपरिचित ही है। उनके जीवन के कुछ अपरिचित व सामान्यतया आलोक में न आए हुये कुछ की चर्चा यहाँ की जा रही है।
1882 में उन्होंने तत्कालीन सरकार से मांग की कि प्राथमिक शिक्षा मुफ्त, अनिवार्य और सार्वभौमिक बनाना चाहिए। इस प्रकार कि मांग करने वाले पूरे एशिया महाद्वीप में, वे पहले शिक्षाविद थे।
1883 में उन्होंने अपनी पुस्तक ‘किसानों का आसूड़’ के माध्यम से कहा कि कृषि और किसान की समस्या तब तक खत्म नहीं होगी, जब तक किसानों को उत्पादन लागत के आधार पर उनका बाजार-मूल्य नहीं मिल जाता। इस प्रकार गरीब किसानों कि समस्याओं से पूरे देश को अवगत कराया।
खेती की आधुनिक विधि, बांधों का निर्माण कर पानी को बहने से बचाना चाहिए, ताकि भूमि उपजाऊ हो। नदियों के पानी को बहने से बचाने के लिए बांधों का निर्माण किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी बतलाया कि कृषि को नल के पानी द्वारा भी सिंचित किया जा सकता है। कृषि से सम्बन्धित पूरक उद्योगों के माध्यम से कृषि को किफायती बनाने के लिए एक नक्शे का प्रस्ताव किया था।
उस कालखण्ड में जब 90 प्रतिशत भारतीय, कृषि पर जीवन-यापन करते थे, उस समय ‘ओपिनियन मेकर्स’ के सामने देश में किसानों की समस्याएँ लाने वाले वे पहले कृषि-अर्थशास्त्री थे।
तत्कालीन भारत में, छह वर्ष की आयु से ही बच्चों को कृषि एवं उद्योग करने के लिए मजबूर किया जाता था। इस संबंध में उन्होंने पहले त्रिकोणीय सूत्र का सुझाव दिया। शैक्षणिक उथल-पुथल को रोकने के लिए, गरीब बच्चों को विद्या-वेतन का समाधान लागू किया गया।
वे 1873 से 1883 की अवधि में पुणे के आयुक्त थे। उन्होंने घर-घर नल के माध्यम से पानी की आपूर्ति की योजना को सफल किया। उन्होंने बेहतर सड़कों, स्कूलों, स्वास्थ्य आदि पर जोर दिया। उन्होनें राज्यपाल के स्वागत में होने वाली फिजूलखर्ची तथा मंडई के निर्माण पर धन बर्बाद करने का विरोध किया एवं इस धन का उपयोग शिक्षा के लिए करने का आग्रह किया।
अपने सामाजिक कार्य को चलाने के लिए उन्होंने कभी समाज से फंड नहीं लिया, अपितु वे स्वयं एक बिल्डर और उद्योगपति थे। ‘पुना व्यावसायिक एवं कंत्राटदार कंपनी’ स्थापित कर कार्य किया। उन्होंने पुना कात्रज बोगदा, बंडगार्डन, बायीं नहर, सड़कों, इमारतों आदि का काम एक सफल उद्योगपति के रूप में किया। उन्होंने अपने उदाहरण से सिद्ध किया कि सामाजिक कार्य करने के लिए किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। उन्हें महात्मा क्यों कहा जाता है, इस विषय को स्पष्ट करना समीचीन प्रतीत होता है, जो इस प्रकार है –
उनकी आयु 61 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 11 मई 1888 को मुंबई के भायखला के पास मांडवी-कोलीवाड़ा में हजारों आग्री, भंडारी और कोली कार्यकर्ता एकत्र हुए। समारोह मांडवी-कोलीवाड़ा में रघुनाथ महाराज सभागार में आयोजित किया गया था। भायखला परिसर में इस दिन एक उत्सव था। नारायण मेघाजी लोखंडे, दामोदर सावळाराम यंदे, स्वामी रामय्या व्यंकय्या आय्यावारू, रावबहादूर वंडेकर, मोरो विठ्ठल वाळवेकर, भाऊ डुंबरे पाटील इत्यादि लोगों के नेतृत्व में इस कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। इसी समय उपस्थित आग्री, भंडारी और कोली कार्यकर्ता बंधुओं ने जोतीराव को ‘महात्मा’ की उपाधि बहाल की।
सामाजिक जागरूकता के लिए उनका योगदान महत्वपूर्ण इसलिए भी है, क्योंकि उन्होंने सामाजिक सुधारों को एक नई दिशा प्रदान की। भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना जिनमें स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय शामिल हैं। वे, संवैधानिक मूल्यों को भारतीय लोकतंत्र में प्रस्थापित करने वाले बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के गुरु थे। भारत में लोकतंत्र की स्थापना होनी चाहिए इसलिए वे आग्रही थे। इसका कारण यह है कि थॉमस पेन द्वारा लिखित ‘ह्युमन राईट्स द एज ऑफ रीज़न’ इस ग्रन्थ को पढ़ने से वह मानवीय मूल्यों से अवगत हो गए।
वर्तमान भारतीय लोकतंत्र में जाति, पंथ, धर्म से परे जाकर भारतीय धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना करना अत्यन्त आवश्यक है। वर्तमान में भारत लोकतंत्र के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। ऐसे समय में महात्मा फुले के विचारों को उनकी पुस्तकों के माध्यम से तथा उनके समाज को दिये गए योगदानों से वर्तमान पीढ़ी को अवगत होना अति आवश्यक है।
हमारे देश, समाज एवं धर्म को बदलने के लिए हमें लोकतांत्रिक तरीके से कदम उठाने चाहिए और सभी को सामाजिक न्याय के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। महात्मा फुले का विचार था कि यह शिक्षा से ही संभव हो सकता है। महात्मा फुले सामाजिक लोकतंत्र के भी प्रवर्तक थे। बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘हू वेअर शूद्राज’ कि प्रस्तावना में कहा है कि महात्मा फुले ने भारत में सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए और शूद्रातिशूद्र के भलाई का पहला विचार पेश किया।
महात्मा फुले ने अमेरिकी स्वतंत्रता और सामाजिक समानता की विचारधारा का अध्ययन किया। इसलिए उन्होने अपनी पुस्तक 'गुलामगिरी' को अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम के प्रवर्तक अब्राहम लिंकन को समर्पित किया। उनकी मान्यता यह थी कि लोकतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं को समानता पर आधारित होना चाहिए। सभी को जाति, धर्म, पंथ, लिंग आदि पर आधारित भेदभाव से बचना चाहिए और सभी को शिक्षित होना चाहिए। सही अर्थ में राष्ट्र कि प्रगति इसी में निहित है। इसलिए, उन्हें भारत में सामाजिक लोकतंत्र के अग्रणी के रूप में माना जाना चाहिए। ‘एकमय लोक’ और ‘एकमय राष्ट्र’ यह उनकी संकल्पना देश को राष्ट्रीय एकता का बोध कराती है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महात्मा फुले, जो एक शोषित, पीड़ित समाज के वैकल्पिक इतिहास को लिखना चाहते थे, वे हमारे इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्रांतिकारी शक्ति थे। महात्मा फुले ने, न केवल ब्राह्मणवादी धर्म, प्राचीन धर्मग्रंथों, पुराणों और उससे उत्पन्न सामाजिक व्यवस्था की चिकित्सा की, अपितु उसमें सुधार के लिए सार्वजनिक सत्यधर्म की स्थापना की। अंधविश्वास और चमत्कार पर उन्होंने कड़ा प्रहार किया तथा सत्य और विवेक के नए मूल्यों का रोपण किया।
– शुभमचित्त