तस्वीर प्रतीकात्मक है. स्रोत: SIASAT.PK |
मेरी बेटी है, मैं उसे दुलार करूँ या मार डालूँ तुम्हें क्या?
मेरी पत्नी है, उसे प्यार करूँ या पीटूँ, तुम कौन होते हो बीच में कूदने वाले?
मेरी बहन है, उसके भले के लिए डाटूंगा, तुमसे मतलब?
ये मेरे आपस का मामला है, तुम क्यों बीच में घुस रहे हो?
मेरा बेटा है, मारूँ-पीटूँ तुमसे क्या?
ये सब वो वाक्य हैं जिन्हें हमारे दिमाग़ में
बचपन से घुसाया जाता है। इसका एक ही अर्थ निकलता है कि बहन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका, बेटा
निजी 'चीज़' हैं।
उन पर हो रहे अत्याचारों पर किसी 'और' को नहीं बोलना चाहिए। यही सोच घरेलू हिंसा व
दमन को सदियों से बनाये रखने और उस पर समाज में चुप्पी बनाये रखने की सामाजिक
स्वीकृति देती है। महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा,
यौन हिंसा, बच्चों के प्रति क्रूरता आदि इसी लॉजिक पर निजी
मामले बताकर दबा दिये जाते हैं।
सच तो ये है कि किसी इंसान से आपका प्यार-दुलार
निजी मामला हो सकता है, लेकिन उसको मारना-पीटना कतईं निजी मामला नहीं होता, अपराध
निजी नहीं होते। इसलिए आपके पड़ोस में कोई पिता अपने बच्चे को पीट रहा हो, तो
रोकिये; कोई पुरुष अपनी पत्नी को मार रहा हो, तो बीच
में कूदिये; कोई अपनी बेटी को मार-पीट रहा हो, तो बीच में
घुसिये। ये निजी मामले नहीं, सार्वजानिक अपराध हैं।
– ताराशंकर